‘ बांड के कांड ’ चंदे का अमृत घूंट
इंजी० अनुराग पाण्डेय
कार्यवाहक संपादक
राजधानी न्यूज, मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़
राजनीतिक पार्टियों को चंदे का इलेक्टोरल बांड कानून अब नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस कानून के लागू होने की डेट से कानून के समाप्त होने की तारीख तक राजनीतिक दलों को मिले चंदे का ब्योरा देने के लिए स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को सर्वोच्च अदालत की नाराजगी झेलनी पड़ रही है.
इलेक्टोरल बांड का अगर कानून नहीं होता तो फिर जो जानकारी आज सार्वजनिक हो रही है वह क्या संभव हो पाती? इलेक्टोरल बांड के अवैधानिक साबित होने से बिना वैकल्पिक व्यवस्था के राजनीतिक दलों के चंदे की व्यवस्था क्या पहले जैसे काम नहीं करेगी? चंदा लेना क्या बंद कर दिया जाएगा? इलेक्टोरल बांड अगर अवैध है तो नगदी की सीमा में लिए जाने वाला चंदा क्या वैध और सत्य है? जब कोई शख्स मांग और पूर्ति के बिना मंदिर में भी दिव्य और भव्य चढ़ावा नहीं चढ़ाता तो फिर राजनीतिक दलों को बिना किसी लाभ के कोई चंदा क्यों देगा?
चंदा और धंधा साथ-साथ बाय प्रोडक्ट के रूप में चलते हैं. इलेक्टोरल बांड पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच एक बात जो दिखाई पड़ रही है उससे लगता है कि भारत के स्थापित कॉर्पोरेट घराने ‘बांड के कांड’ में शामिल नहीं हैं. राहुल गांधी और पूरी कांग्रेस भाजपा पर यह आरोप लगा रही है कि इलेक्टोरल बांड हफ्ता वसूली की योजना बन गई है. जिन कंपनियों ने चंदे दिए हैं उन्हें आगे पीछे सरकार की ओर से धंधा या प्रोटेक्शन दिया गया है.
इलेक्टोरल बांड के हमाम में कोई भी दल पीछे नहीं है. किसी को ज्यादा मिला है तो किसी को कम मिला है लेकिन मिला सभी राजनीतिक दलों को है. इसमें खास बात यह है कि जहां-जहां जिस राजनीतिक दल की सरकारें थी वहां उसे ज्यादा चंदा मिला है. इसलिए बात तो साबित होती है कि सरकारी प्रोटेक्शन के लिए चंदा दिया जाता होगा. लगभग 20 हज़ार करोड़ के इलेक्टोरल बांड राजनीतिक दलों को दिए गए हैं. उसमें से लगभग 7 हज़ार करोड़ रुपए बीजेपी को मिले हैं और 13 हज़ार करोड़ रुपए विपक्षी दलों को मिले हैं. इस नजरिये से भी बांड का अधिक लाभ विपक्षी दलों को ही मिला है.
राजनीति का पूरा ब्रह्मांड इलेक्टोरल बांड के हमाम में एक साथ ही खड़ा दिखाई पड़ता है. राहुल गांधी अडानी और अंबानी समूह पर सरकार की मेहरबानी का खुला आरोप लगाते हैं. बांड के जो ब्योरे सामने आए हैं उसमें इन दोनों औद्योगिक समूहों का अब तक नाम सामने नहीं आया है. राहुल के आरोपों के अनुसार इन घरानों ने जो भी सरकारी संरक्षण प्राप्त किया है उसके लिए कम से कम बांड तो नहीं दिए गए हैं. इसका मतलब है कि सरकारों की हफ्ता वसूली में यह घराने अपने को बचाए हुए हैं. जिन कंपनियों के नाम सामने आ रहे हैं वे बहुत प्रसिद्ध औद्योगिक घराने नहीं है.
राजनीतिक दलों को चंदे की पारदर्शी व्यवस्था के लिए आजादी के समय कानून बनाया जाना चाहिए था. कालाधन चुनावी प्रक्रिया को निष्पक्ष और लेवल फील्ड नहीं रहने देता. हर चुनाव में करोड़ों रुपए पकड़े जाते हैं. मुख्य चुनाव आयुक्त ने लोकसभा चुनाव की घोषणा करते हुए बताया था कि हाल ही में हुए चुनाव में 3400 करोड़ की नगदी जब्त हुई है जो नगदी नहीं जब्त की गई उसका तो अंदाजा ही लगाया जा सकता है.
इलेक्टोरल बांड कानून आने के बाद अब तक 20 हज़ार करोड़ के बांड पार्टियों को दिए गए हैं. लगभग पांच सालों में बांड के जरिए दी गई यह राशि कुछ भी नहीं है जितना काला धन चुनाव में उपयोग होता है उसकी तो कल्पना करना ही मुश्किल है.
बांड की योजना समाप्त हो गई, फिर भी क्या राजनीतिक दल चंदे नहीं ले रहे हैं? नगदी की सीमा के अंतर्गत सारे चंदों को एडजस्ट किया जाएगा. रसीद काटकर बड़े-बड़े समूह या ठेकेदारों से मिले कालेधन को राजनीतिक दल चंदे के रूप में केवल समायोजित करते हैं. जितनी सीमा तक उन्हें नगद राशि लेने की छूट है उस सीमा तक सारी राशि को एडजस्ट कर लिया जाता है, फिर तो इसके बारे में कोई भी व्यवस्था, कोई भी कानून उनसे कुछ भी पूछ नहीं सकता. बांड की व्यवस्था में तो कम से कम ऐसी स्थिति थी कि किसने पैसा दिया है, किसको दिया है, वह कभी भी जाना जा सकता है.
राजनीतिक दल एक दूसरे को भ्रष्ट और इस पूरे राजनीतिक जगत को बुराइयों का अंबार साबित करते हैं. इसके बाद भी कोई भी राजनेता इस जगत से मोक्ष पाना नहीं चाहता. रिटायरमेंट की कोई अवधारणा ही राजनीति में नहीं है. राजनीतिक क्षेत्र अगर पद-प्रतिष्ठा के साथ ही महान और धनवान बनने का सबसे उपयुक्त अवसर नहीं होता तो फिर ना राजनीतिक परिवारों का जन्म होता और ना ही राजनेता अपने पुत्रों को विधायक और सांसद बनाने में रुचि लेते.
बीजेपी में अभी थोड़ा समय लगेगा लेकिन कांग्रेस में तो ऐसा एक भी स्थापित नेता ढूंढना मुश्किल है जिसने अपनी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के वारिस को राजनीति का वारि नहीं बनाया हो. केवल कांग्रेस ही नहीं क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद की राजनीति महान और धनवान बनने का ही प्रयोग माना जा सकता है.
राजनीतिक दलों के चंदे पर पारदर्शी प्रक्रिया की देश को तत्काल आवश्यकता है. कालेधन को चुनावी प्रक्रिया से रोक कर लोकतांत्रिक गरिमा को मजबूत बनाना जरूरी है. राजनीतिक दलों के अलावा राजनेताओं द्वारा जो चंदे लिए जाते हैं उनको भी कानून प्रक्रिया में लाना समय की मांग है. छोटे-छोटे शहरों से लेकर बड़ी-बड़ी राजधानियों तक चंदे का बाजार गर्म रहता है. कई राजनेताओं को तो चंदा मामा की उपाधि दी जाती है. चंदे के प्रताप के कारण ही शहरों की खूबसूरती बिगड़ रही है. चंदा ही शासन की पूरी व्यवस्था को संचालित कर रहा है. चंदे के धंधे में जो कमजोर वह सिस्टम के घेरे से बाहर होता है.
लोकतंत्र को बचाना है और संसदीय व्यवस्था को गरिमा देना है तो धोखे और पाखंड की संभावनाओं को न्यूनतम करना होगा. देश की पूरी राजनीतिक प्रक्रिया राजनीतिक दलों के धन प्रबंधन, चुनावी प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बड़ी गंभीरता से विकल्पों के साथ निर्णय की प्रक्रिया प्रारंभ करना देश के लिए हितकारी होगा.
जनसेवा का राजनीतिक जगत धन प्रबंधन का जगत बन गया है. जन्म ही जैसे मृत्यु की शुरुआत है. जन्म में ही मृत्यु छुपी है. मृत्यु जन्म का ही विस्तार है. केवल दृष्टि का भेद है. राजनीतिक दल एक दूसरे पर कुछ भी आरोप लगाएं चंदा राजनीतिक दलों का धंधा है. चंदा ही शुरुआत है और चंदा ही अंत है. सिस्टम के सहयोग से या सिस्टम की आंखों में धूल झोंक कर जन-धन की लूट की बंदरबांट राजनीति के लिए अमृत घूँट है. राजनीतिक दलों में ‘जियो और जीने दो’ का विचार ‘चंदे के धंधे’ में ही ईमानदारी से प्रभावी दिखाई पड़ता है.