ज़मीन के नीचे ज़माना — अनूपपुर में अधिग्रहण का अद्भुत तमाशा”

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पं अजय मिश्र
अनूपपुर जिले में इन दिनों एक नया खेल चल रहा है, नाम है – “भू-अधिग्रहण प्रीमियम लीग”। इसमें न तो दर्शकों की ज़रूरत है, न ही खिलाड़ियों की मर्ज़ी की। यहां किसान तो सिर्फ़ मैदान की घास हैं – जो कभी उगते थे, अब उखाड़े जा रहे हैं। और प्रशासन? वह अंपायर नहीं, बल्कि स्कोरबोर्ड देखने में व्यस्त है कि किसका कितना हिस्सा कब साफ़ हुआ।

कहानी कुछ यूं है…

एक समय था जब अनूपपुर के किसान सुबह सूरज से पहले खेतों में हल चलाते थे, अब वही किसान सरकारी नोटिस पढ़कर हलकान हैं। खेत वही हैं, मगर अब ‘फसलों’ की जगह ‘प्रोजेक्ट’ बोए जा रहे हैं। और सरकार कहती है – “विकास के लिए ज़मीन चाहिए।” किसान कहते हैं – “हमारे बच्चों को भी ज़िंदगी चाहिए!” पर दोनों की भाषा में फ़र्क है — सरकार कागज़ों में बोलती है, किसान आंसुओं में।

प्रशासन — मूक नहीं, ‘मैनेज्ड’ है!

प्रशासन चुप है, पर इतना भी नहीं कि कुछ सुन न सके। वो सिर्फ़ सुनकर भूलने की कला में पीएचडी कर चुका है। ज़मीनी हालात पूछो तो जवाब मिलेगा — “सभी प्रक्रिया नियमानुसार की जा रही है।” किसान कहे — “हमसे सहमति नहीं ली!” तो फाइलों से झांकता है एक दस्तख़त — जो शायद चाय पीते वक्त लिया गया होगा।

राजनीति — दर्शक दीर्घा में नहीं, पॉपकॉर्न के साथ फ्रंट सीट पर है

राजनीतिक दल इस खेल को टीवी पर नहीं, गांव के नुक्कड़ों पर लाइव देख रहे हैं। एक कहता है — “ये तो पिछली सरकार का पाप है!”, दूसरा चिल्लाता है — “हम आएंगे तो ज़मीन वापस देंगे!” पर कोई नहीं बताता कि “कब आएंगे?” और जब आएंगे तो उस पर मॉल होगा या मंडी?

किसान — बेबस या ***””?

किसान अब नारे नहीं लगाते। वे अब ‘धरतीपुत्र’ नहीं, ‘डाटा एंट्री’ बन चुके हैं। जितनी ज़मीन गई, उतनी बार उन्होंने पटवारी के चक्कर लगाए। लेकिन मुआवज़ा ऐसा कि खेत गया, किस्मत भी गई। कभी एक बीघा ज़मीन का सपना देखते थे, अब ईंटों में उगती ईएमआई देख रहे हैं।

अंत में…

अनूपपुर का यह भूमि अधिग्रहण ऐसा अध्याय बनता जा रहा है, जिसमें किसान पात्र नहीं, ‘पृष्ठभूमि’ हैं। विकास का रथ दौड़ रहा है, पर बैलगाड़ी के पहियों से कुचला हुआ वो किसान अब सिर्फ़ एक आंकड़ा है — “भूमि अधिग्रहित: 2000 हेक्टेयर, विरोध: नगण्य।”

पर एक बात तय है — जब अगली बार चुनाव आएंगे, तब यही किसान “अधिग्रहण” का नहीं, “वोट” का साधन बनेंगे। और तब मंच से आवाज़ आएगी — “हम आपके दर्द को समझते हैं…”।

काश, ये समझने की प्रक्रिया अधिग्रहण से पहले शुरू होती।
(, पर हकीकत अभी बाकी है…)