पत्तों को पानी जड़ों की कुर्बानी एक तरफ देश जुड़ रहा तो एक तरफ कांग्रेस टूट रही

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पत्तों को पानी जड़ों की कुर्बानी
*एक तरफ देश जुड़ रहा तो एक तरफ कांग्रेस टूट रही*

इंजी०अनुराग पाण्डेय
कार्यवाहक संपादक
राजधानी न्यूज
मध्य प्रदेश/छत्तीसगढ़

कांग्रेस में पत्तों को पानी दिया जा रहा है और जड़ों की कुर्बानी दी जा रही है. कांग्रेस की जड़ों से जुड़े पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी के कांग्रेस से टूट जाने को भले ही कांग्रेस नेतृत्व पार्टी का भार कम होना बता रहा हो लेकिन जब-जड़ें हिलती हैं तो हलके झोंके से भी विशाल वृक्ष धराशायी हो जाते हैं.

सुरेश पचौरी तो गांधी परिवार के ही विश्वस्त माने जाते थे. उन्हें पार्टी में सब कुछ मिला था, उनकी तकलीफ पद प्रतिष्ठा नहीं हो सकती. उन्होंने इस उम्र में अगर इतना बड़ा कदम उठाया है तो इसका मतलब है कि उनका दिल टूटा है. कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व तो जड़ों से जुड़े नेताओं को सामान्य सम्मान और संवाद भी करने से शायद परहेज करता है.

कभी मध्यप्रदेश की राजनीति में पचौरी कांग्रेस के युवा तुर्क हुआ करते थे. पूरे राज्य में उनका जनाधार था. ब्राह्मण राजनीति में कांग्रेस उनका पूरा उपयोग करती थी. एमपी की कांग्रेस राजनीति में सिंह गर्जना के बीच पचौरी जैसे चेहरे गांधी परिवार को संतुलन बनाए रखने में सहयोगी होते थे. चुनाव जीतने वाले ही नहीं राजनीतिक दल में समन्वय और संतुलन के लिए भी नेताओं को तराशा और निखारा जाता है.

मध्यप्रदेश में कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद से ही कांग्रेस बिखराव की तरफ बढ़ गई है. बिखराव की यह गति इतनी तेज दिखाई पड़ रही है कि एमपी कांग्रेस के लिए यूपी बनता दिखाई पड़ रहा है. गांधी परिवार कांग्रेस के सभी निर्णय और सभी हादसों के लिए जिम्मेदार माना जाएगा. गांधी परिवार में कांग्रेस की पूरी फ्रेंचाइजी राहुल गांधी के पास ही मानी जाती है. सोनिया गांधी अब तो सक्रिय राजनीति से राज्यसभा की राजनीति की ओर बढ़ गई हैं.

प्रियंका गांधी अभी चुनावी राजनीति तक ही सीमित हैं. राहुल गांधी ही सारे फैसलों और सारे प्रचार अभियान के केंद्र बिंदु माने जाते हैं. चुनिंदा समर्थक  कांग्रेसजनों की ओर से जिंदाबाद के नारे सुनते-सुनते शायद राहुल गांधी की सच्चाई सुनने की क्षमता कम हो गई है.

कांग्रेस के जो नेता कभी गांधी परिवार के आंख-कान की तरह काम करते थे, उन्हें दिल्ली में मेल मुलाकात के लिए भी समय नहीं दिया जाता. विधानसभा में कमलनाथ की पराजय के बाद जिस तरह से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के फैसले लिए गए उससे भी कांग्रेस में घुटन कम होने की बजाय बढ़ती ही दिखाई पड़ रही है. राहुल का अगर विश्वास है तो फिर किसी को भी नेतृत्व दिया जा सकता है. उसके लिए योग्यता, विश्वसनीयता और मास अपील की आवश्यकता नहीं होती. हारे ‘जीतू’ बन जाते हैं और राहुल का भरोसा कांग्रेस की  ‘उमंग’ कहलाने लगती है.

कांग्रेसजनों के फीडबैक और जनता के बीच नेतृत्व क्षमता कोई पैमाना नहीं होता. वरिष्ठता भी दरकिनार कर दी जाती है. जो कमलनाथ राहुल गांधी की तीन पीढियों के साथ काम कर चुके हैं उन कमलनाथ को मिलने और बात करने का भी समय राहुल गांधी नहीं देते हैं. राजनीति में इस तरीके का व्यवहार पद और प्रतिष्ठा से ज्यादा व्यक्ति की चेतना को झकझोरता है.

सुरेश पचौरी किसी लोभ या लालच में बीजेपी में शामिल हुए होंगे इसकी तो कोई संभावनाएं दिखाई नहीं पड़ती हैं. कांग्रेस में भी उन्हें घर में बैठा दिया गया था और बीजेपी में भी उन्हें घर में ही रहना होगा. निकट भविष्य में उन्हें कोई राजनीतिक पद शायद बीजेपी में मिलने की भी कोई उम्मीद नहीं है. साफ़ सुथरी राजनीति करने वाले पचौरी कोई अपना व्यवसाय और दूसरी कुछ चीज़े या जांच एजेसिंयों से बचने के लिए बीजेपी में गए होंगे यह भी नहीं कहा जा सकता. फिर उन्होंने कांग्रेस क्यों छोड़ी? यह रहस्य का विषय ही लगता है.

पचौरी ने स्वयं जो प्रतिक्रिया दी है उसमें उन्होंने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के आमंत्रण को कांग्रेस के नेतृत्व द्वारा अस्वीकार किए जाने से आहत होने की बात कही है. राम हिंदुओं की आस्था का विषय हैं. राजनीति अलग क्षेत्र हो सकता है लेकिन जब आस्था आहत होती है तो फिर ऐसे फैसले लेने के लिए दिल मजबूर कर देता है.

पचौरी के पार्टी छोड़ने पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि पार्टी का भार कम हो गया. दूसरे नेता कहते हैं कि पतझड़ में पुराने पत्ते गिर जाते हैं और नए पत्ते आते हैं. जो नेतृत्व वरिष्ठता के प्रति इस तरीके की टिप्पणी कर सकता है उसकी लीडरशिप में संगठन की कार्यप्रणाली का अनुमान ही लगाया जा सकता है.

सामान्य लोगों में एक सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि कांग्रेस के पुराने नेताओं को लेकर बीजेपी को क्या लाभ होगा? प्रथम दृष्टि में तो कोई लाभ दिखाई नहीं पड़ता है लेकिन एक परसेप्शन जरूर बनता है कि पार्टी के प्रति लोगों में रुचि बढ़ रही है. राजनीति का उद्देश्य भी यही होता है कि अपनी विचारधारा और नीतियों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा कर लोगों को जोड़ा जाए. बीजेपी तो पार्टी के विस्तार की दृष्टि से नेताओं को जोड़ने के अभियान में लगी हो सकती है लेकिन कांग्रेस को तो अपनी कार्यप्रणाली की बुनियाद में ही सुधार करने की जरूरत है.

पिछले दिनों मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के बीजेपी में जाने की आम चर्चा थी. यह चर्चा अभी भी बीच-बीच में चलती रहती है. सुरेश पचौरी के बीजेपी में शामिल होने की तो कुछ चर्चा भी नहीं थी.  अचानक उन्होंने बीजेपी ज्वाइन कर ली. उनके साथ कई प्रभावशाली पूर्व विधायक और नेता भी बीजेपी में शामिल हुए हैं. एमपी कांग्रेस में जिस तरह घुटन और अहंकार वाली कार्यप्रणाली चलती दिख रही है उससे तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस छोड़कर दूसरे दलों में जाने का यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है.

ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा नेता को कांग्रेस संभाल नहीं सकी थी. सिंधिया को तो राहुल गांधी का बेहद करीबी दोस्त कहा जाता था.उसके बाद भी उनके मान-सम्मान और स्वाभिमान का ध्यान नहीं रखा गया. कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की लंबी लिस्ट को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस नेतृत्व को कांग्रेस जोड़ो यात्रा सबसे पहले निकलने की जरूरत है.

राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा,फिर भारत जोड़ो न्याय यात्रा निकालकर देश को जोड़ने का अभिनय करते हैं और कांग्रेस टूटती चली जा रही है. देश तो जुड़ा है और जुड़ता जा रहा है. इसके विपरीत कांग्रेस खुद ही टूटती चली जा रही है. कांग्रेस को वैसे भी सत्ता की पार्टी माना जाता है. जब भी कांग्रेस हारती है तब टूटती है लेकिन अब तो सत्ता में रहते हुए भी कांग्रेस टूटती जा रही है. हिमाचल प्रदेश में पूर्ण बहुमत की कांग्रेस सरकार से छह विधायक टूट गए हैं. सरकार वहां भले अभी कायम हो लेकिन सरकार के टूटने की प्रक्रिया भी चल ही रही है.

गांधी परिवार खासकर राहुल गांधी जब भी राज्य के नेतृत्व के फैसले करते हैं तब मेरिट से ज्यादा अपने खास लोगों को मौका देने को प्राथमिकता देते हैं. इसके कारण ही कांग्रेस की राज्यों में स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है. जब भी नेतृत्व का चयन किया जाता है तो डेमोक्रेटिक ढंग से बहुमत का सहारा ना लेकर नेतृत्व की मंशा थोप दी जाती है. हिमाचल प्रदेश में भी यही हुआ है. पंजाब में जब पिछली कांग्रेस सरकार में नए मुख्यमंत्री का चयन किया गया था तब भी ऐसे ही हालात बने थे. वहां  कांग्रेस की सरकार चुनाव में पराजित हो गई थी.

यूपी कांग्रेस का कभी गढ़ हुआ करता था. गांधी परिवार की पूरी राजनीति यूपी से ही निर्धारित होती थी. उसी उत्तरप्रदेश में आज गांधी परिवार चुनाव लड़ने से भी डर रहा है. गांधी परिवार अपनी परंपरागत सीट रायबरेली और अमेठी से चुनाव लड़ने से भी दूरी बनाता दिखाई पड़ रहा है.

मध्यप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति बीजेपी के मुकाबले में लगातार कमजोर होती जा रही है. हालात इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि मध्यप्रदेश भी कांग्रेस के लिए उत्तरप्रदेश बनने की तरफ तेजी से अग्रसर है. आसन्न लोकसभा चुनाव में तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की संभावनाएं लगभग शून्य है. छिंदवाड़ा की सीट पर ही फाइट कही जा सकती है. बाकी परिणाम तो चुनाव के पहले ही दीवार पर घोषित हैं.

सुरेश पचौरी के अलावा श्रीनिवास तिवारी का परिवार कांग्रेस की ब्राह्मण राजनीति का चेहरा था. श्रीनिवास तिवारी के पोते सिद्धार्थ तिवारी को कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल होने पर ही विधायक बनने का मौका मिला. विचारधारा में भी कांग्रेस लगातार मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होती जा रही है. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के सलाहकारों पर अगर नजर डाली जाए तो उनकी मानसिकता मार्क्सवाद को ही प्रोत्साहित कर रही है. ऐसी ही विचारधारा ने राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा का आमंत्रण अस्वीकार करने का महापाप कांग्रेस से कराया. इसके कारण हिंदुत्व की विचारधारा में विश्वास रखने वाले कांग्रेसजनों में निराशा आनी स्वाभाविक है.

जब सिंधिया कांग्रेस से टूटे थे, तब कमलनाथ की सरकार चली गई थी. अब सुरेश पचौरी के साथ अनेक नेता कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए तो कांग्रेस की सरकार जाने जैसा तो कोई खतरा नहीं है लेकिन मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी के भविष्य का ही खतरा खड़ा हो गया है.

टूटती कांग्रेस का हाथ थामने के लिए तो उत्तर भारत में कोई संभावना दिखाई नहीं पड़ रही है. कांग्रेस में पुरानी पीढ़ी के नेताओं का दौर समाप्ति की ओर है. युवा नेतृत्व में योग्यता और क्षमता को अगर दरकिनार किया जाता है तो फिर कांग्रेस की जमीन मध्यप्रदेश में खत्म हो जाएगी. राहुल गांधी पत्तों को सीचते रहेंगे और जड़ें सूख जाएंगी. बिना जड़ों की कांग्रेस के सहारे राहुल गांधी देश जोड़ने का अभिनय जरूर करते रहेंगे लेकिन कांग्रेस को नहीं जोड़ पाएंगे. किसी भी नेता को 10 साल 20 साल आजमाने के बाद तो नए नेतृत्व पर दांव लगाना किसी भी पार्टी का धर्म होता है. कांग्रेस तो शायद यह धर्म भी भूल गई है.

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