नरवर किला विंध्याचल पर्वत श्रंखला की एक ऊंची पहाड़ी पर सिंध नदी के किनारे स्थित है
शिवपुरी। रंजीत गुप्ता। मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में स्थित राजा नल का किला अपनी पौराणिक गाथाओं के कारण संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है। नरवर किले की प्रसिद्धि का मुख्य कारण पौराणिक महापात्र राजा नल-दमयंती है इन्हीं की वजह से ही नरवर की पहचान कायम है। नरवर किला विंध्याचल पर्वत श्रंखला की एक ऊंची पहाड़ी पर सिंध नदी के किनारे स्थित है। यह किला नरवर की सतह से 474 फीट की ऊंचाई पर स्थित है समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 1600 फीट है। यह किला 8 किलोमीटर की परिधि में बना हुआ है। सुरक्षा की दृष्टि से है किला अजेय है क्योंकि यह चतुष्कोणीय घेरे में स्थित है। भारतवर्ष में चित्तौड़गढ़ के किले के बाद नरवर किले का स्थान आता है।
नरवर के समीप कितनी ही शिलालेख प्राप्त हुए हैं उनमें नरवर को निषद देश तथा नलपुर लिखा गया है। महाभारत में वन पर्व के अंतर्गत निषद चरित्र में राजा नल और रानी दमयंती की कथा विस्तार पूर्वक वर्णन आई है। राजा नल दमयंती के उपरांत आगे चलकर नरवर के किले में ढोला मारू राजा हुए। जिसमें ढोला नरवर की राजा तथा मारू राजस्थान की राजकुमारी थी ढोला मारु का प्रेम प्रसंग इतिहास के पन्नों पर अंकित है। इसके पश्चात त्रेता युग में नरवर श्री राम के पुत्र कुश के राज्य के अंतर्गत आया जिससे कछवाहा वंश की उत्पत्ति हुई। तदोपरांत नरवर कई राजवंशों के अधिकार में रहा। जिसमे नागवंशी राजाओं का 125 ई. से 344 ई. तक राज्य रहा। जिनमें गणपति नांग प्रतापी राजा हुए। 4वी एवं 5वी शताब्दी में गुप्त वंश का राज रहा। 383 ई. में नरवर में श्री पाल नामक राजा हुए जिन्होंने नरवर किले को पुन: बसाया।
इसके पश्चात 6वी एवं 7वीं सदी में वर्धन वंश का राज्य यहां रहा। 9 वी में इस दुर्ग पर राजपूत कछवाहो का राज्य हुआ जो 10 वी शताब्दी तक चला। 11वीं शताब्दी में यह राज्य गुर्जर प्रतिहारो के अंतर्गत रहा। 1129 ईस्वी में यह दुर्ग चाहत देव के आधिपत्य में रहा इसके पश्चात इस दुर्ग पर बादशाहा नसीरुद्दीन का अधिकार हो गया। 13 वी से 14 वी शताब्दी के मध्य में कुतुबुद्दीन ऐबक, अलाउद्दीन खिलजी तथा अन्य राजाओं का यहां अधिकार रहा।
1410 ई. में सिकंदर लोदी के आक्रमण के फल स्वरुप यह किला उसके अधीन हो गया। सिकंदर लोदी ने यहां एक मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया। 1945 में बादशाह हुमायूं का प्रभाव स्थापित हो गया। नरवर के कछवाहा राजाओं को निरंतर अपने जीवन में मुगलों से संघर्ष करते रहना पड़ा। 16 वी ई. मे फिर से कछवा राजाओं का राज्य आया। 17 ईसवी में नरवर किले के राजा गज सिंह कछवाहा ने दक्षिण के युद्धों में राजपूतानी शौर्य का परिचय दिया और 1725 इसी में हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। राजा गज सिंह दक्षिण के युद्ध में अपने पुरोहित की अंतिम इच्छा से उसका रुपट्टा नरवर भेजा और उनकी दोनों पत्नियां लक्ष्मी देवी और स्वरूप देवी सती हो गई। उनकी स्मृति में उनके पुत्रों ने सती स्मारक बनवाए जो आज भी इस किले की 8 कुआ 9 बावड़ी के नजदीक स्थित है। यह सती स्मारक 1823 ई. में बनवाए गए। 18 वीं सदी में नरवर किले के अंतिम कछवाहा राजा माधौ सिंह राजपूत थे। इसके पश्चात 19वीं शताब्दी में यह सिंधिया राजवंश के अधीन हो गया। जिसके उपलक्ष में उन्होंने एक खम्बी छतरी का निर्माण निर्माण कराया। इसे विजय स्तंभ भी कहा जाता है। इस प्रकार से नरवर में कई सारे पराक्रमी एवं प्रतापी राजा हुए हैं।
नरवर किले के चारों ओर विशाल परकोटे बने हुए है, परकोटो से लगी हुई पूर्व दिशा में गहरी खाई है। नरवर में प्रवेश के लिए चार मुख्य द्वार है जिनमें उत्तर दिशा से आने पर गंज दरवाजा, पूर्व दिशा से आने पर धुवाई दरवाजा, मुबारकपुर से आने पर मुबारकपुर (खिड़की) दरवाजा तथा दक्षिण दिशा से आने पर जिंदा वली दरवाजा जो बरसों पहले गिर चुका है, इसके अवशेष अभी भी शेष है, तथा अलावा किले की पश्चिम दिशा में पीछे की तरफ से आने पर उरवाहा गेट पड़ता है। इसके अलावा किले की ऊपरी परकोटे के चहुओर कई सारे द्वार है। इनमे प्रमुख रूप से हवापौर द्वार, पश्चिम में गोमुख दरवाजा, उत्तर में ढोला दरवाजा तथा दक्षिण में दक्षिणी गेट मिलता है जो लखना ताल से दृष्टिगोचर होता है। तथा इन सबके बीच में कई सारी छोटे-छोटे गुप्त द्वार भी है जो खंडार अवस्था में है किले के परकोटे पर चहु ओर कई सारे बुर्ज बने हुए हैं जिन पर तोपें रखी जाती थी। जिसमें से शेष तोपें किले की कचहरी महल में रखी हुई है।
किले की सतह के ऊपर दो प्रकार के मोटे मोटे मजबूत पर बूटी बने हुए हैं जो किले की सतह को तीन भागों में विभक्त करते हैं। इन तीन भागों को मौजलोक , ढोला अहाता तथा मदार अहाता कहते हैं। नरवर किले में कई सारी गुप्त सुरंगे बनी हुई है जो किले की चारों तरफ अलग-अलग दिशाओं में विभिन्न प्रकार की बावड़ीओ में जाकर खुलती है। नरवर के इलाके में आज भी ऐसी कई सारी बावड़िया दृष्टिगोचर होती है। इन सुरंगों का प्रयोग किले के राजा आपातकालीन परिस्थितियों में करते थे।
जब पर्यटक नरवर किला देखने को जाता है तो वह प्रमुख रूप से 2 मार्गों के द्वारा ही किले पर पहुंच सकता है। जिसमें प्रथम मार्ग एक खम्बी छत्री के दरवाजे से होकर जाता है तथा द्वितीय मार्ग और उरवाहा ग्राम के जैन मंदिर से एक दरवाजे से होकर जाता है जिसे उरवाहा गेट कहते है। इस दरवाजे का निर्माण श्रीपाल राजा ने विक्रम संवत 8 में करवाया था। इस गेट से पर्यटक गोमुख मंदिर को देखते हुए किले पर पहुंचता है।
जब पर्यटक एक खम्बी द्वार से किले पर जाता है तो उसे किले का प्रथम द्वार मिलता है जिसे पिसनाई दरवाजा कहते हैं। इसके उपरांत दूसरा दरवाजा मिलता है जिसे कोतवाली दरवाजा (सैयद दरवाजा) कहते हैं। इसके बाद तीसरा गणेश द्वार तथा चौथा एवं अंतिम मुख्य द्वार हवापौर दरवाजा दृष्टिगोचर होता है। एक जानकारी के अनुसार सिंधिया शासक स्वर्गीय सर इज हाईनेस श्री मंत प्रथम माधौराव सिंधिया जी ने दिनांक 23 दिसंबर 1901 में नरवर आए, वह शाम के समय नरवर किला देखने गए। उन्होंने देखा कि किले में मुस्तैद हमला ठीक से काम नहीं करता है। उन्होंने नरवर के पुन:निर्माण की दिशा में विशेष रुचि ली थी। उन्होंने नरवर किले में हवापौर, चर्च तथा कई महलों का जीर्णोद्धार कराया।
जब पर्यटक हवापौर के उपरांत किले मे दाखिल होता है तो वह माजलोक भाग मे प्रवेश करता है। नरवर के किले को तीन भागों में विभक्त किया गया है जिनमें केले के केंद्रीय घेरे का नाम माजलोक है जिसे माजलोक अहाता कहते हैं। दूसरे भाग जो पश्चिम दिशा में है उसे ढोला अहाता कहते है। अंतिम अहाता किले का दक्षिणी भाग है जिसे मदार अहाता कहते हैं इस भाग में मदार साहब की दरगाह है।
1.माजलोक अहाता – इस अहाते में किले के महल एवं मंदिर स्थित है। इस अहाते में मुख्य रूप से छीप महल एवं राजाओं के शाही स्नानागार, छतरी महल, लदाऊ बंगला, पुरानी चक्की महल, फुलवा महल, ढोला-मारू का दरबार, रेवा-परेवा महल, कचहरी महल, सुनहरी महल, रंग महल, सिकन्दर लोधी की मस्जिद, नागर मोहन जी का मंदिर, मीना बाजार, मीना बाजार, विष्णु-लक्ष्मी मंदिर, आठ कुआ नौ वाबड़ी( 8 कुआ 9 वाबड़ी 166 पनिहारी) , उर्मिला लक्ष्मण मंदिर, मकरध्वज मंदिर, रोमन कैथोलिक चर्च, आल्हा ऊदल का अखाड़ा, गोमुख रामजानकी मंदिर, मनसा देवी मंदिर, सिद्ध खो, पुरानी जेल, मराठा सरदार इंगले की हवेली, भक्त शिरोमणि कर्मा बाई जी की हवेली एवं अन्य किले में निवासरत लोगो की बस्ती आदि।
2. पश्चिम अहाता (ढोला अहाता) – इस अहाते के दरवाजे में राजा नल के समय के केसर के धब्बे मौजूद है तथा यहां के कंगूरे झुके हुए हैं। यहां से मोहनी सागर बांध का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। जो पर्यटकों के मन को बहुत भाता है।
3. मदार अहाता(गूजर अहाता) – इस अहाते में मुख्य रूप से पसर देवी जी का मंदिर, कटोरा ताल, कटोरा ताल के चारों तरफ घोड़ो के अस्तवल, मदार साहब की दरगाह, छत्रियाँ, चंदन तलैया तथा पत्थर की खदान आदि स्थित है।
पर्यटन की दृष्टि से ऐतिहासिक धरोहर नरवर के नल दमयंती किले में अनगिनत पुरातत्व संपदाओं की भरमार है। युवाओं को चाहिए कि किला घूमते समय पुरातत्व संपदाओं से छेड़छाड़ ना करें। ऐसी अनमोल पुरातात्विक संपदा सुरक्षित रह सके। जिससे भावी पीढ़ी अपने देश की संस्कृति से रूबरू हो सकें।